बुधवार, 25 सितंबर 2013

जी भर नही देखा

कैसे करूँ यकीं मैं खुदा के वजूद का । जिस शख्स को हमने कभी छूकर नही॥ ऊँची इमारतों पे नज़र ठहर गई है। लेकिन किसी ने नींव का पत्थर नही देखा॥ हर इम्तहाँ में वक्त के नाकाम मै रहा। दुनिया की जो किताब थी पढ़कर नही देखा॥ घर से चले थे साथ हयात-ऐ सफर पे हम। गुम हो गया वो भीड़ में रुक कर नही देखा॥ लगता है जागना है मुझे आज रात भी। अरसे हुए हैं नींद ने बिस्तर नही देखा॥ आए हैं कुछ फ़रिश्ते ले जाने को मुझे। हसरत यही रही तुम्हे जी भर नही देखा॥

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