बुधवार, 25 सितंबर 2013

जाने क्यों

जाने क्यों ? घर की दहलीज़ लाँघते ही, हम सब चिपकाते हैं अपने ही चेहरे पर एक मुखौटा ..................... जो सर्वथा अपरचित है भिन्न है हमसे घर से निकलने से पहले चिपकाते हैं होंठो पर एक मस्त स्माइल ........... जो हमारी होती ही नही लगता है,फटी कथरी में मखमल की चकती इस्त्री किए कपड़े , करीने से लगी क्रिजें लेकिन उसके नीचे आत्मा पर कितनी खरोंचे होंगी गिना नही जा सकता सभ्य कहलाने के लिए बालों को सलीके से सजाते -सजाते कब असभ्यता की परिधि से बाहर आ गए पता ही नही चला, घर की दहलीज़ लांघने से पहले कभी आइना देखना नही भूलते अपना ही प्रतिबिम्ब अजनबी सा लगता है

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