ख्वाहिशों की कब्र पर यह कौन................ ख्वाबों की चादर......... चढा गया जिस चादर में टांके......... मोंती कुछ तेरी आंखों वाले......... कुछ मेरी आँखों वाले ......
तुम्हारे लिये
बुधवार, 25 सितंबर 2013
स्मृतियों के पल
स्मृतियों के पल ......... बिन आहट बिन दस्तक चले आते है ......... विचारों की वेणियों में गूंथकर दे जाते है एक मधुर मुस्कान जो भरती है जीवन में रंग सांसो की मियादें कुछ और बढ़ जाती है बढ़ती उमर की बढ़ती झुर्रियां और दवा की खुराकें कुछ और कम हो जाती है।
कसूर
यह जो जिंदगी का उसूल है। बड़ा बदमजा औ फिजूल है ॥ गर इश्क करना गुनाह तो । अपना गुनाह कबूल है॥ बैठूं मै किसकी छांव में । हर शै दरख्ते बबूल है॥ कांटे बिछाये जो उम्र भर। मरने पे लाये वो फूल है॥ इन ख्वाहिशों की उम्र क्या । सब हसरतों का कसूर है ॥
एक दीवाना
चुपके - चुपके नजर मिली जब एक जमाना वो भी था॥ कदमो तले जो दिल रखता था एक दीवाना वो भी था ॥ चाँद पे अपना घर होता था ख्वाब सुहाना वो भी था ॥ आँखों से दोनों पीते थे एक मयखाना वो भी था ॥ ख्वाब में हर शब् हम मिलते थे एक ठिकाना वो भी था ॥ पल भर में जो राहत दे -दे दर्द पुराना वो भी था॥
कुछ कुंवारे ख्वाब
कुछ कुंवारे ख़्वाब सीने में पल रहे हैं । कुछ बुझ चुके है जल कर कुछ अब भी सुलग रहे हैं।। कुछ ताज़ा -तर खराशें रूहों की सिसकती हैं। कुछ ज़ख्म भी पुराने रह-रह उभर रहे हैं।। कुछ फैसले अधूरे दम तोड़ने लगे हैं। कुछ चीखते सन्नाटे रातों को डस रहे हैं॥ कुछ रिश्ते हो चुके हैं बासी कुछ ताज़ा हो रहे हैं। कुछ फूल खिल रहे हैं कुछ खिल के झर रहे हैं॥ कुछ गर्द पड़ चुकी थी ख्यालों के पुलिंदों पर। कुछ पांव के निशान अब उनको कुचल रहे हैं॥ कोई राह थक चुकी है मेरा इंतजार करके। कुछ लोग अजनबी उस रस्ते गुज़र रहे हैं॥
गिला नही करते
चलो हटाओ हर एक बात का , गिला नहीं करते।.................. हमें ख़बर है की वो अब भी , हम पे शैदा हैं । यह और बात है हंस कर, मिला नहीं करते ॥ चलो हटाओ................... न तोडिये कभी बागों से , खिलते फूलों को । बिछड़ के शाख से फ़िर गुल , खिला नहीं करते ॥ चलो हटाओ......................... है दिल में खौफ कहीं , इश्क की रुसवाई न हो । नाम महबूब हथेली पे , लिखा नही करते।। चलो हटाओ ...................... नहीं वाजिब उनको अपना, हमसफ़र कहना। जो राह-ऐ-इश्क पे ताउम्र , चला नहीं करते ॥ चलो हटाओ .
जाने क्यों
जाने क्यों ? घर की दहलीज़ लाँघते ही, हम सब चिपकाते हैं अपने ही चेहरे पर एक मुखौटा ..................... जो सर्वथा अपरचित है भिन्न है हमसे घर से निकलने से पहले चिपकाते हैं होंठो पर एक मस्त स्माइल ........... जो हमारी होती ही नही लगता है,फटी कथरी में मखमल की चकती इस्त्री किए कपड़े , करीने से लगी क्रिजें लेकिन उसके नीचे आत्मा पर कितनी खरोंचे होंगी गिना नही जा सकता सभ्य कहलाने के लिए बालों को सलीके से सजाते -सजाते कब असभ्यता की परिधि से बाहर आ गए पता ही नही चला, घर की दहलीज़ लांघने से पहले कभी आइना देखना नही भूलते अपना ही प्रतिबिम्ब अजनबी सा लगता है
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